आज के अखबार (14 नवंबर, 2024) | नई दिल्ली
मनमाने तरीके से घरों को बुलडोजर चलाकर तोड़ देने और इसे त्वरित न्याय बताने के राजनीतिक तरीके पर सुप्रीम कोर्ट ने 13 नवंबर को रोक लगा दी है। 14 नवंबर के अखबारों ने इसे सबसे प्रमुख खबर बनाया है, सुप्रीम कोर्ट के इस बेहद महत्वपूर्ण फैसले के बाद दैनिक जागरण सरीखे उन अखबारों को भी फैसले की सराहना करनी पड़ी है जिन्होंने अपनी कवरेज के जरिए बुलडोजर वाली कार्रवाइयों को बुलडोजर न्याय (जस्टिस) की संज्ञा दी थी।
फैसले पर बात करने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला बड़ी देरी से आया है क्योंकि अबतक ऐसी कार्रवाइयों से डेढ़ लाख घरों को ढहाया जा चुका है। फ्रंटलाइन के मुताबिक, 2017 से जारी ऐसी कार्रवाइयों का शिकार देशभर के डेढ़ लाख परिवारों के सबा सात लाख लोग हो चुके हैं। यानी ये वे लोग हैं जिनकी खून पसीने की कमाई के बने घरों को तोड़ दिए जाने के बाद वे बेघर होकर विस्थापित जीवन जी रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के बुधवार को आए फैसले ने पीड़ित लोगों में न्याय की आस तो जगाई है पर ये फैसला पुरानी घटनाओं पर लागू न किए जाने से संबंधित मामलों के लिए प्रशासन व अफसरों को जिम्मेदार ठहराने या पीड़ित परिवारों को मुआवजा दिलाने का मामला धुंधला ही है।
सिर्फ आरोपी या अपराधी होने के आधार पर घर गिराना अवैध
अब बात कवरेज की करें तो सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की पीठ ने फैसला सुनाया कि – अफसर जज नहीं बन सकते, किसी मामले के आरोपी या अपराधी को भी उसकी संपत्ति ढहाकर सजा नहीं दी जा सकती। घर ढहाकर सजा देने के इस तरीके से अफसर उस व्यक्ति के अलावा उस मकान में रहने वाले परिवार या परिवारों को भी सामूहिक रूप से सजा दे रहे हैं। आगे से प्रॉपर्टी तोड़ने से पहले 15 दिन का नोटिस दिया जाना अनिवार्य है। साथ ही, वीडियोग्राफी भी करानी होगी। जहां भी संपत्ति ढहानी है, उसकी सूचना जिलाधिकारी को देना भी जरूरी है। सर्वोच्च न्यायालय की ओर से इस तरह की 15 गाइडलाइन जारी की गई हैं। जिसमें यह भी स्पष्ट कहा गया है कि अगर कोई अफसर गाइडलाइन का उल्लंघन करता है तो वो अपने खर्चे पर दोबारा प्रॉपर्टी का निर्माण कराएगा और मुआवजा भी देगा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश की शुरूआत कवि प्रदीप की एक कविता से की-
‘अपना घर हो,
अपना आंगन हो,
इस ख्वाब में हर कोई जीता है।
इंसान के दिल की ये चाहत है
कि एक घर का सपना कभी न छूटे।’
एक्सप्रेस व द हिन्दू ने उठाया मुआवजा न मिलने का मुद्दा
द इंडियन एक्सप्रेस ने पहले पन्ने पर ही लिखा है कि जिनके घर उजाड़ दिए गए उन्हें उम्मीद के अलावा कुछ और नहीं मिला। अखबार ने यूपी, उत्तराखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश में बुलडोजर की कार्रवाइयों के पीड़ितों से बात की, इन सभी ने कहा है कि फैसले के उन्हें राहत तो मिली है पर इसमें किसी तरह के मुआवजे का जिक्र नहीं होने से वे निराश हैं। द हिन्दू ने भी विस्तृत कवरेज में बताया है कि इस मामले के प्रमुख पैरोकार जमीयत-ए-हिन्द ने इस फैसले को भविष्य के लिए नजीर बताते हुए अदालत का शुक्रिया अदा किया है। पर इस मामले के अन्य याचिकाकार्ताओं ने निराशा जताते हुए हर्जाने की मांग की है। कुछ याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि इस मामले पर वे आगे लड़ाई जारी रखेंगे।
बेघर होने पर रिश्तेदारों ने भी डर से शरण नहीं दी
जितना अहम फैसले की विस्तृत कवरेज है, उससे ज्यादा अहम इस पर आई प्रतिक्रियाओं को पढ़ना है। एक्सप्रेस को इन पीड़ितों ने एक और पीड़ा यह बताई कि घर ढहा दिए जाने के बाद उन्हेें उनके रिश्तेदारों ने इस डर से शरण नहीं दी कि कहीं सरकार के बुलडोजर की नजर उन पर भी न पड़ जाए। एक्सप्रेस ने अपनी खबर में स्पष्ट बताया है कि इन कार्रवाइयों का असर या तो अल्पसंख्यक समुदाय पर पड़ा या फिर समाज के कमजोर तबके वाले लोगों पर। एक्सप्रेस ने अपने संपादकीय में कहा है कि प्रशासन की ऐसी कार्रवाइयों से पीड़ित कमजोर तबके वाले सुप्रीम कोर्ट नहीं जा पाते, ऐसे में यह फैसला तब प्रभावशाली होगा जब स्थानीय थाना और निकाय परिषद पर बैठे सरकारी अफसरों तक सुप्रीम कोर्ट का यह सख्त संदेश पहुंचे।
फैसले में लगी देरी पर TOI ने सवाल उठाए, लिखा- क्या अफसर अदालत की सुनेंगे ?
द टाइम्स ऑफ इंडिया ने पहले पन्ने पर कई घटनाओं के हवाले से लिखा है कि बहुत पीड़ितों के लिए अदालत का यह फैसला बहुत देरी से आई राहत है। संपादकीय की हेडिंग सवाल उठाती हुई है – bulldozed no more ? अखबार ने लिखा है कि यूं तो दबाना कमजोर सरकार की निशानी है पर हाल की राजनीति को देखें तो यह रणनीति का हिस्सा है। जैसे हरियाणा के नूंह की हिंसा के बाद सरकार ने 800 मकानों को ढहा दिया जिसमें अधिकांश मुसलमानों के थे। अखबार ने लिखा है कि यह फैसला तो बहुत अच्छा है पर अफसर अदालत से ज्यादा डरेंगे या नेताओं से ? इस मामले पर द हिन्दुस्तान टाइम्स की कवरेज बेहद औसत और पहले पन्ने तक सीमित है।
दैनिक जागरण की कवरेज में बुलडोजर पर सफाई
दैनिक जागरण ने पहले पन्ने की अपनी इस खबर की हेडिंग लगाई है – ‘मनमाने तरीके से नहीं चलेगा बुलडोजर’। इस कवरेज में जागरण ने इस बार पर विशेष जोर दिया है कि सुप्रीम कोर्ट ने नई गाइडलाइनों को सार्वजनिक स्थानों पर होने वाले अतिक्रमण से अलग रखा है। जागरण ने अपने संपादकीय में कहा है कि अच्छा होता अगर सुप्रीम कोर्ट यह देख पाता कि बुलडोजर कार्रवाई न्याय में देरी की उपज है। अपनी कवरेज में जागरण ने यूपी सरकार की प्रतिक्रिया लिखी है, जिसमें कहा गया है कि फैसले से माफिया, संगठित व पेशेवर अपराधियों पर अंकुश लगेगा। हालांकि अखबार ने यह सवाल नहीं उठाया कि जो योगी सरकार अपने दो बार के कार्यकाल मेें बुलडोजर न्याय को अपराध पर अंकुश लगाने वाला बताती रही है, वह इसपर लगी रोक के फैसले को भी किस तरीके से अपराध पर अंकुश लगाने वाला कह रही है। गौरतलब यह भी है कि दैनिक जागरण ने इस मामले पर आईं विपक्षी दलों की प्रतिक्रियाओं को छापा ही नहीं जिसमें सीधे तौर पर योगी व अन्य भाजपा शासित राज्यों को निशाना बनाया गया था।
बात अन्य दैनिक हिन्दी अखबारों की करें तो अमर उजाला ने पहले पन्ने पर इसे पहली खबर तो बनाया है पर न तो इस पर संपादकीय लिखा और न ही अंदर के पेज पर विस्तृत कवरेज की। दूसरी ओर, दैनिक हिन्दुस्तान ने इसे पहले पन्ने पर मुख्य खबर के रूप में लिया और अंदर के पेज पर सभी राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाएं लगाई हैं।