बोलते पन्ने

कहानी … बॉल पेन बनाने वाले शख्स की

लास्ज़लो जोज़सेफ बिरो

लास्ज़लो जोज़सेफ बिरो, बॉल पेन के अविष्कारक

कहानी दुनिया को बॉल पेन देने वाले एक शरणार्थी की जिस बॉल पेन का इस्तेमाल आज हाथ से कागज पर लिखने के लिए पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा किया जा रहा है। एक समय था जब बॉल पेन इजाद हो जाने के बाद भी दुनिया इसे अपना नहीं पा रही थी। तब फाउंटेन पेन ही प्रचलन में था जबकि उसे इस्तेमाल करने में स्याही देर मेें सूखती और उंगलियां भी रंग जातीं। पर बॉल पेन के अविष्कारक ने अपने बनाए नयाब अविष्कार को लेकर उम्मीद नहीं छोड़ी और जब दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हुआ ये पेन ही ब्रिटेन की वायुसेना के लिए हवाई जहाज के दौरान लिखने का सहारा बना क्योंकि गुरुत्वाकर्षण बल के चलते फाउंटेन पेन ऊंचाई पर नहीं चल पाता था। यहां से बॉल पेन चर्चा में आया और इसका इस्तेमाल पूरी दुनिया में किया जाने लगा।

बॉल पेन के ईजाद होने से स्वीकार्यता पाने तक की कहानी हमें बताती है कि सही समय आने तक हमें धीरज और आत्मविश्वास से काम लेना चाहिए। यही धीरज दिखाया था हंगरी के लेडिस्लाओ जोस बिरो ने जिन्होंने साल 1931में बॉल पेन का आविष्कार किया। बिरो का जन्म 29 सितंबर 1899 में हंगरी के एक यहूदी परिवार में हुआ था और वे पेशे से एक पत्रकार थे। बाद में उन्होंने अपना नाम “लाजियो जोसेफ बिरो” रख लिया था और वे इसी नाम से प्रसिद्ध हुए। जोस बिरो अपनी पत्रकारिता के दौरान फाउंटेन पेन से लिखते समय कागज पर होने वाले धब्बों से बहुत परेशान थे। उनके मन में एक ऐसा पेन बनाने का विचार आया जिसकी स्याही जल्दी सूख जाती हो और लिखने पर धब्बे भी न पड़ें। उन्हें विचार आया कि क्यों न अखबार की छपाई में काम आने वाली स्याही के इस्तेमाल से ऐसा पेन बनाया जाए क्योंकि ये स्याही जल्दी सूखती है और कागज पर धब्बे नहीं पड़ते। इसके लिए उन्होंने फाउंटेन पेन में अखबारी स्याही का उपयोग किया लेकिन यह प्रयोग सफल नहीं हुआ क्योंकि यह स्याही बहुत मोटी थी जिसे निब की नोक तक पहुंचने में बहुत समय लगता था। फिर उन्होंने एक ballpoint निब का आविष्कार किया था जिस पर स्याही की एक पतली फिल्म लेपी गई थी। जब इस निब का कागज से संपर्क होता तो इसकी गेंद या निब बॉल घूमने लगती थी और कार्टेज को स्याही मिलती और कागज पर लिखावट दिखने लगती। इस तरह बॉल पेन तो तैयार हो गया लेकिन इसकी स्याही को और बेहतर बनाने की जरूरत थी ताकि यह पेन चलाने में ज्यादा आसान हो।

जोस बिरो ने सही चिपचिपाहट वाली स्याही बनाने के लिए अपने भाई जोर्जी बिरो की मदद ली, वे एक दवा की दुकान चलाते थे और उसी अनुभव के आधार पर एक स्याही तैयार हुई। दो भाइयों की इस जोड़ी ने 15 जुलाई 1938 को इस पेन को “बिरो” नाम देकर पेटेंट करवा लिया। पर बॉल प्वाइंट वाला यह बिरो पेन मार्केट में बिकना शुरू नहीं हुआ। इसी बीच साल 1941 में हंगरी पर नाजियों के कब्जे के कारण जोस बिरो को अपना देश छोड़ना पड़ा और वे अर्जेंटीना चले गए। वहां सन 1943 में हंगरी से ही शरणार्थियों के साथ मिलकर उन्होंने बिरो पेन को एक कर्मशियल प्रोडक्ट के रूप मेें बनाया और प्रचारित करना शुरु किया। यह वही समय था जब यूरोप और एशिया में दूसरा विश्वयुद्ध विस्तार ले रहा था। ब्रिटेन की रॉयल एयर फोर्स को ऊंचाई वाले क्षेत्रों में युद्ध ऑपरेशंस के दौरान ऐसे पेन की जरूरत थी जिससे लिखावट आसान हो। बिरो पेन का विचार वायु सेना को भाया और वही रॉयल एयर फोर्स इस पेन का सबसे पहला खरीदार बनी। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान इस संगठन ने 30,000 बिरो पेन के आर्डर दिए थे क्योंकि यह पेन पारंपरिक फाउंटेन पेन के विपरीत अधिक ऊंचाई पर आसानी से काम करता था। बिरो पेन को इस तरह ख्याति मिलने लगी, आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जिसे भारत एशिया और अमेरिका में भी बॉल प्वाइंट पेन के नाम से जाना जाता है, उसे अभी भी ब्रिटेन, आयरलैंड, ऑस्ट्रेलिया और इटली जैसे देशों में “बिरो” पेन ही कहा जाता है। दोस्तों बिरो का देहांंत उनकी कर्मभूमि अर्जेनटीना में साल 1985 में हुआ और आज भी अर्जेंटीना बिरो के जन्म दिवस 29 सितंबर को इन्वेंटर्स डे Inventors’ Day के रूप में मनाती है।

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