आज के अखबार (16 नवंबर) | नई दिल्ली
29वें जलवायु सम्मेलन (COP29) के समापन में अभी एक सप्ताह से ज्यादा समय बचा हुआ है पर अभी से कई देशों के बीच के मतभेद सामने आ रहे हैं। अर्जेंटीना ने इस सम्मेलन से खुद को अलग कर लिया और संभावना जताई जा रही है कि वह पेरिस संधि से भी खुद को अलग कर सकता है। गौरतलब है कि यहां के प्रमुख इस सप्ताह ट्रंप से मिलने जा रहे हैं। दूसरी ओर, फ्रांस के मंत्री ने भी अपना दौरा स्थगित कर दिया क्योंकि वह सम्मेलन के आयोजक देश अजरबाइजान से नाराज है।
इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए विकसित देशों की ओर से मिलने वाले अनुदान को बढ़ाने की विकासशील देशों की मांग पर सहमति नहीं बन पाई है और ट्रंप की जीत के बीच इसपर आम सहमति न बन पाने की आशंका और गहरा गई है। अब विकसित व विकासशील दोनों के बीच तनाव की एक नई वजह यूरोपीय संघ की नई व्यापार नीति बन गई है, जिसमेें कार्बन उत्सर्जन के आधार पर आयातित वस्तुओं पर अतिरिक्त कर लिया जा रहा है।
विकासशील देशोें को मिलने वाले नए जलवायु वित्त पर सबकी नजर
इस साल हो रहे जलवायु सम्मेलन कॉप-29 को इसलिए अहम माना जा रहा है क्योंकि इसमें सभी पक्षकारों के बीच ‘न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल’ (एनसीक्यूजी) नाम के एक नए जलवायु वित्त से जुड़े समझौते पर सहमति बनने की उम्मीद है।
यह समझौता 2009 में विकसित देशों द्वारा किए उस वादे की जगह लेगा जिसमें जलवायु परिवर्तन के खिलाफ जंग में विकासशील देशों की मदद करने के लिए सालाना 10,000 करोड़ डॉलर दिए जाने पर प्रतिबद्धता जताई गई थी। हालांकि यह वादा महज एक बार 2022 में पूरा किया गया है और वह भी डेडलाइन पूरी होने के दो साल बाद। विशेषज्ञों का अनुमान है कि अब विकासशील देशों के लिए जलवायु परिवर्तन संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए खरबों डॉलर वित्तीय मदद की जरूरत होगी। इस मामले में विकसित देशों ने नई मांग उठानी शुरू कर दी है कि वित्तीय मदद करने वाले देशों के समूह में अब अमीर देश जैसे चीन, कतर, सऊदी को भी जोड़ा जाए। इस बात का विकासशील देश सख्ती से विरोध कर रहे हैं। अध्ययनों से पता चला है कि वैश्विक जीडीपी के महज एक फीसदी हिस्से से विकासशील देशों की जलवायु संबंधी मौजूदा आवश्यकताओं को पूरा किया जा सकता है।
भारत ने 1.3 ट्रिलियन डॉलर सालाना जलवायु वित्त की मांग रखी
बाकू में चल रहे सम्मेलन के दौरान ‘न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल’ का निर्धारित किया जाएगा जो कि 2025 से लागू होगा। इसके लिए सम्मेलन के पहले दिन रखे गए मसौदे को जी-77 और चीन ब्लॉक (134 विकासशील देशों का समूह) ने ठोस न मानते हुए खारिज कर दिया था। फिर दोबारा आए मसौदे 1.3 ट्रिलियन डॉलर सालाना जलवायु वित्त की मांग की। यह मांग समान विचारधारा वाले विकासशील देशों की तरफ से भारत ने रखी। गौरतलब है कि सम्मेलन में अब तक सुलभता, पारदर्शिता और मानवाधिकार जैसे मुद्दों पर प्रगति हुई लेकिन वित्त की कुल राशि, स्रोत और योगदानकर्ताओं के चयन जैसे मुख्य विषयों पर वार्ता लंबित है।
कार्बन टैक्स पर यूरोपीय संघ व भारत-चीन में ठनी
कॉप29 में विवाद का एक अन्य प्रमुख मुद्दा यूरोपीय संघ का कार्बन टैक्स बन गया है। भारत व चीन ने जलवायु सम्मेलन के दौरान इस मुद्दे पर वार्ता की मांग रखी जिससे यूरोपीय संघ ने यह कहकर इनकार कर दिया कि यह मंच व्यापार पर बात करने का नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, इस पर चीन-भारत की ओर से बीते शुक्रवार को कहा गया कि विश्व व्यापार संघ के मंच पर भी यूरोपीय संघ ने इस पर बात नहीं की थी, फिर आखिर वह इस पर कहां बात करना चाहता है?
दरअसल, यूरोपीय संघ ने पिछले साल एक नीति बनाई है जिसका नाम ‘कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज़्म’ (CBAM) है। इसके तहत 2026 से यूरोपीय संघ में आयात होने वाले उन उत्पादों पर कार्बन टैक्स लगाएगा, जिसके निर्माण में ज्यादा ऊर्जा खर्च होती है। यह टैक्स उन उत्पादों के उत्पादन के दौरान हुए कार्बन उत्सर्जन पर आधारित होता है।
मेजबान देश के प्रमुख की हो रही आलोचना
अजरबाइजान की राजधानी बाकू में हो रहे जलवायु सम्मेलन में इस देश के राष्ट्रपति इल्हाम अलीयेव की ओर से दिए गए भाषणों की खासी आलोचना हो रही है। अमेरिकी समाचार वेबसाइट सीएनएन ने कॉप29 के ‘बेपटरी’ होने पर एक खबर लिखी है, जिसकी हेडिंग इस ओर इशारा करती है। हेडिंग है – ‘जलवायु नेता चिंता में थे कि ट्रंप वार्ता को पटरी से उतार देंगे पर उन्हें नहीं पता था कि उनका मेजबान ही विध्वंसकारी साबित होगा।’ दरअसल सम्मेलन में दिए भाषण के दौरान राष्ट्रपति अलीयेव ने फ्रांस और नीदरलैंड्स पर आरोप मानवाधिकार हनन के आरोप लगाए, जिसके बाद फ्रांस ने सम्मेलन में आने का दौरा रद्द कर दिया हालांकि नीदरलैंड्स इसमें शामिल हुआ है।
अपने पहले दिन के भाषण के लिए भी अलीयेव की आलोचना हुई थी जिसमें उन्होंने पश्चिमी देशों, एनजीओ व अंतरराष्ट्रीय मीडिया को पाखंडी बताया था। साथ ही, भाषण में उन्होंने अपने देश के तेल व गैस के भंडार को ‘भगवान का उपहार’ बताते हुए अपने उस रूख का बचाव किया था जिसमें वे जीवाश्म ईंधन के बचाव व प्रसार का समर्थन करते हैं। अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण संगठन ‘350 डॉट ओआरजी’ के विश्लेषण के अनुसार, अलीयेव ने अपने तीन-चौथाई से अधिक भाषणों में जीवाश्म ईंधन का बचाव या प्रचार किया।