- काठमांडू में 2 वर्ष की आर्यतारा शाक्या को ‘नई कुमारी’ चुना गया, ‘कौमार्य’ हासिल करने तक ये जीवित देवी मानी जाएंगी।
नई दिल्ली |
नेपाल में नवमी में मौके पर दो साल की बच्ची को जीवित देवी चुना गया है। बच्ची का परिवार भावुक होकर उसे कुमारी सिंहासन पर बैठाने के लिए ले जाने का फोटो मीडिया में वायरल है।
यह बच्ची मासिक धर्म शुरू होने तक यानी कौमार्य हासिल कर लेने तक नेपाल की जीवित देवी मानी जाएगी।
‘कुमारी प्रथा’ नेपाल की सांस्कृतिक धरोहर है, लेकिन जेंडर समानता के युग में यह सवाल उठाती है: क्या ‘देवी‘ बनना लड़कियों के लिए वरदान है या अभिशाप?
आइए इसे जेंडर दृष्टिकोण से समझें।
तुलसी भवानी का अवतार मानने की प्रथा
नेपाल की प्राचीन परंपरा ‘कुमारी’ में एक छोटी लड़की को देवी तुलसी भवानी का अवतार मानकर पूजा जाता है। यह रिवाज न्यूारी बौद्ध और हिंदू समुदायों में सदियों पुराना है।
लेकिन इसका जेंडर आयाम जटिल है। एक ओर यह स्त्री शक्ति को सम्मान देता है, वहीं दूसरी ओर बालिकाओं की शिक्षा, सामाजिक विकास और स्वतंत्रता पर गंभीर प्रतिबंध लगाता है।
हाल ही में काठमांडू में 2 वर्ष 8 माह की आर्यतारा शाक्या को नई कुमारी चुना गया, जो त्रिश्ना शाक्या की जगह लेंगी।
इससे पहले 2017 में 3 वर्षीय त्रिश्ना शाक्या को यह पद मिला था, जो अब किशोरावस्था में पहुँचने पर पद छोड़ रही हैं।
चयन प्रक्रिया: शुद्धता और सौंदर्य के जेंडर मानदंड
कुमारी का चयन शाक्या कबीले की 2-4 वर्षीय लड़कियों में से होता है, जिसमें 32 शारीरिक और मानसिक ‘पूर्णताएँ’ (perfections) जाँची जाती हैं। इसमें बेदाग त्वचा, दाँत, आँखें, बाल, और मासूमियत शामिल हैं।
लड़की को अंधेरे कमरे में भैंस के सिर और डरावने मुखौटों के सामने डर न लगने की परीक्षा भी देनी पड़ती है।
यह प्रक्रिया स्त्री शरीर को ‘शुद्ध’ और ‘दिव्य’ बनाने पर जोर देती है, जो नेपाली समाज के जेंडर मानदंडों को प्रतिबिंबित करती है।
आलोचक कहते हैं कि यह लड़कियों पर सौंदर्य और पवित्रता के दबाव को बढ़ावा देता है, जो व्यापक स्तर पर महिलाओं पर लगाए जाने वाले सौंदर्य आदर्शों (beauty standards) का विस्तार है।
पुरुषों के लिए कोई समान रिवाज नहीं है, जो जेंडर असमानता को उजागर करता है—लड़कियाँ ‘देवी’ बनने के लिए ‘पूर्ण’ होनी चाहिए, लेकिन लड़कों का बचपन सामान्य रहता है।
कुमारी का जीवन: सम्मान के साथ प्रतिबंध
चयन के बाद कुमारी कुमारी घर (मंदिर-महल) में रहती है, जहाँ उसे लाल वस्त्र पहनाए जाते हैं और माथे पर ‘तीसरी आँख’ चिह्नित की जाती है।
वह 13 बार ही बाहर निकलती है—धार्मिक उत्सवों (जैसे इंद्र जात्रा) में रथ पर सवार होकर।
किशोरावस्था (मासिक धर्म) आने पर पद समाप्त हो जाता है, और वह ‘सामान्य’ जीवन में लौटती है।
लेकिन यह ‘दिव्य’ अवधि (3-12 वर्ष) में लड़की को सामाजिक अलगाव, शिक्षा की कमी, और सामान्य खेल-कूद से वंचित रखा जाता है।
जेंडर एंगल से देखें तो यह रिवाज स्त्री शक्ति (शक्ति) को पूजता है, लेकिन व्यावहारिक रूप से लड़कियों को ‘शुद्धता’ और ‘चुप्पी’ का प्रतीक बना देता है।
पूर्व कुमारी की किताब से परंपरा पर सवाल उठे
पूर्व कुमारी रश्मिला शाक्या की किताब From Goddess to Mortal में वर्णित है कि पद समाप्ति के बाद सामान्य जीवन में लौटना कितना कठिन होता है—घरेलू काम सीखना, स्कूल जाना, और सामाजिक अलगाव से उबरना।
2005 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर हुई, जिसमें कहा गया कि यह परंपरा बाल अधिकारों का उल्लंघन करती है, क्योंकि लड़की को ‘कैद’ जैसा जीवन जीना पड़ता है।
मानवाधिकार कार्यकर्ता इसे ‘बाल शोषण’ मानते हैं, क्योंकि यह लड़कियों की शिक्षा, सामाजिक विकास, और स्वतंत्रता को सीमित करता है।
पूर्व कुमारियों को ‘शापित’ मानना
पूर्व कुमारियों को ‘शापित’ माना जाता है—विश्वास है कि उनकी शादी करने वाला पति जल्दी मर जाएगा, जिससे कई अविवाहित रह जाती हैं।
यह जेंडर असमानता को बढ़ावा देता है, क्योंकि लड़कियों को बचपन से ही ‘देवी’ के रूप में अलगाव सिखाया जाता है, जबकि लड़कों का विकास सामान्य रहता है।
हाल के सुधारों से कुछ राहत
2008 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कुमारियों को महल में ही निजी ट्यूटर्स से शिक्षा दी जाती है, टीवी देखने की अनुमति है, और पद समाप्ति पर सरकारी पेंशन मिलती है।
फिर भी आलोचक (जैसे UNICEF, Human Rights Watch) कहते हैं कि यह प्रथा बाल अधिकार संधि (CRC) का उल्लंघन करती है, क्योंकि यह लड़कियों की स्वतंत्रता और विकास को बाधित करती है।
नेपाली समाज में लिंग असमानता (जैसे बाल विवाह, संपत्ति अधिकारों की कमी) के व्यापक संदर्भ में, कुमारी प्रथा एक उदाहरण है कि कैसे सांस्कृतिक सम्मान महिलाओं को ‘दिव्य’ लेकिन ‘दबाया गया’ बनाता है।
यह परंपरा सांस्कृतिक संरक्षण और मानवाधिकारों के बीच संतुलन की मांग करती है।

