मुक्तक
मेट्रो शहर की मांएं | कविता
भारतीय मेट्रो शहरों में रहने वाली कामकाजी महिलाएं हों या गांवों-कस्बों में रह रहीं पुरानी पीढ़ी की दादी-नानियां।
पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के मां बन जाने के बाद की भूमिकाएं या कहें कि उनके ‘जेंडर रोल’ लगभग एक से हैं। इसी मुद्दे को कलात्मक ढंग से दर्शाती है ये कविता- मेट्रो शहर की मांएं। इसे लिखा व प्रस्तुत किया है, हमारी साथी शिवांगी ने।
इसे सुनिए और हमें फीडबैक दीजिए।
अगर आपके पास भी कोई कविता है तो हमें प्रकाशन के लिए इस पते पर भेजिए – contact@boltepanne.com
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उम्र का मौसम | कविता – सुजाता

नए साल के साथ उम्र का मौसम भी बदल गया है। ऐसे में पेश है ये कविता। उम्र के साथ नजर भले कमजोर हो जाए पर रिश्तों को पहचानने का नजरिया तब ही आता है। कुछ ऐसा ही समझती, सिखाती … ये कविता।
इस कविता को सुनकर कमेंट बॉक्स में अपनी प्रतिक्रिया जरूर लिखें।
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दंगों की आंच में रोमांस | कविता

दंगों के हालात में एक इंसान के तौर पर आपेक्षित संवेदनशीलता जब न दिखे तो एक कवि का मन किस तरह के सवाल उठाता है, ये कविता वैसे ही सवालों से श्रोता को घेर लेती है। दिल्ली दंगों का एक साल पूरा होने के मौके पर इस कविता को सुनिए। दिल्ली के विनोद श्रीवास्तव की इस कविता को आवाज दी है शिवांगी ने।
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