रिसर्च इंजन
पारिवारिक कलह: 10 साल में 5 पार्टियों की हार, लालू की RJD पर भी क्या खतरा?

- लालू यादव के बड़े बेटे तेज प्रताप के नई पार्टी बना लेने के बाद अब बेटी रोहिणी आचार्य के बगावती तेवर
- रोहिणी ने भाई तेजस्वी के करीबी के खिलाफ ट्वीट किया, फिर पिता और भाई को एक्स पर अनफॉलो किया
मई में लालू यादव ने अपने बड़े बेटे तेज प्रताप को “गैर-जिम्मेदार व्यवहार” के चलते 6 साल के लिए RJD और परिवार से निकाल दिया, जिसकी घोषणा उन्होंने एक्स पर ट्वीट करके दी थी। दरअसल 2018 में तेजप्रताप की शादी ऐश्वर्या ( बिहार के पूर्व मंत्री चंद्रिका राय की पोती) से हुई थी पर रिश्ता नहीं चला और तलाक का केस अब भी कोर्ट में चल रहा है।

लालू के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव।
इस बीच तेजप्रताप ने अनुष्का यादव के साथ अपनी एक फोटो ट्वीट करके दावा किया कि वे उनके साथ 12 साल से Live-In रिश्ते में हैं, बाद में इसे डिलीट कर दिया। इसी फोटो के चलते हुई किरकिरी के बाद लालू ने ऐक्शन लिया।
इसके बाद तेज प्रताप ने जनशक्ति जनता दल (JJD) नामक नई पार्टी बनाई और 5 छोटे दलों से गठबंधन किया। बता दें कि JJD को मूल रूप से 2020 में रजिस्टर किया गया था, इस दल को चुनाव आयोग ने ‘ब्लैकबोर्ड’ का सिंबल दिया है। बता दें कि तेजप्रताप हसनपुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक हैं। इससे पहले वह बिहार के महा-गठबंधन में नीतीश सरकार के स्वास्थ्य मंत्री भी रह चुके हैं।
तेज प्रताप ने समर्थन किया, कहा “जो बहनों का अपमान करेगा, उसे सुंदरन चक्र का सामना करना पड़ेगा।” – तेज प्रताप यादव की प्रतिक्रिया।

किडनी दान करने के बाद अपने पिता के साथ रोहिणी आचार्य (फोटो क्रेडिट – रोहिणी का फेसबुक पेज)
“सब NDA का प्रोपेगैंडा है। हम एक परिवार हैं, और यह सब चुनाव से पहले फैलाया जा रहा है ताकि RJD को कमजोर दिखाया जाए। हमारी एकता अटल है, और यह प्रोपेगैंडा हमें मजबूत ही बनाएगा।” – तेजस्वी यादव, प्रेस कॉन्फ्रेस (21 सितंबर 2025)
RJD में रोहिणी आचार्य और तेज प्रताप यादव के बगावत के केंद्र में तेजस्वी यादव के सलाहकार संजय यादव रहे हैं। संजय ने 2020 विधानसभा चुनाव में RSS चीफ मोहन भागवत के आरक्षण वाले बयान पर तेजस्वी की रणनीति बनाई, जिससे RJD को फायदा हुआ।

तेजस्वी यादव के साथ उनके करीबी सहयोगी संजय यादव (फोटो क्रेडिट – @sanjuydv)

लालू यादव, credit – staticflickr
विशेषज्ञों का मानना है कि उनकी रणनीति, जिसमें सामाजिक न्याय और यादव-मुस्लिम वोट बैंक को एकजुट करना शामिल था, ने उन्हें संकट से उबारा। 2020 में भी तनाव के बावजूद RJD ने 75 सीटें जीतीं, जो एकता की मिसाल थी। वर्तमान में लालू की नेतृत्व क्षमता और तेजस्वी यादव की युवा अपील पार्टी को फिर से खड़ा करने की संभावना रखती है।

KCR की बेटी के. कविता (फोटो क्रेडिट – इंटरनेट)

वाईएस शर्मिला (फोटो क्रे़डिट – @realyssharmila)
1- यूपी में सपा से शिवपाल अलग हुए, पार्टी चुनाव हारी- उत्तर प्रदेश (2016-2017) के विधानसभा चुनाव के दौरान सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव और उनके बेटे अखिलेश यादव के बीच कलह ने पार्टी को दो धड़ों में बांट दिया। मुलायम के भाई शिवपाल सिंह यादव ने विद्रोह किया, जिससे 2017 विधानसभा चुनाव में SP की सीटें 224 से घटकर 47 रह गईं। BJP ने 312 सीटें जीतीं। कलह ने यादव वोट बैंक को बांटा, और SP को 25 वर्षों बाद विपक्ष में धकेल दिया।

उद्धव ठाकरे (फोटो क्रेडिट – इंटरनेट)
चुनावी डायरी
जीतन राम मांझी : NDA की दलित ताकत, पर सीट शेयर में बड़ी अड़चन

- बिहार चुनाव में NDA से 15 से 20 सीटें चाहते हैं HAM चीफ माझी
नई दिल्ली|
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 से ठीक पहले NDA (नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस) में सीट बंटवारे को लेकर चल रही खींचतान में जीतन राम मांझी का नाम सबसे ऊपर है। हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर) (HAM) के संस्थापक और केंद्रीय मंत्री मांझी ने 15 से 20 सीटों की मांग रखी है, लेकिन BJP-JDU गठबंधन उन्हें 3-7 सीटें देने पर अड़ा है। क्या मांझी NDA के लिए महादलित-दलित वोटों की ‘मजबूत कड़ी’ हैं या उनकी बढ़ती महत्वाकांक्षा के बीच गठबंधन बचाना ‘मजबूरी’ और चुनौती बन गया है? आइए जानते हैं इस विश्लेषण में..

जीतनराम मांझी (तस्वीर – @NandiGuptaBJP)
NDA में मांझी की ‘मजबूती’: दलित वोटों का मजबूत आधार
हालिया बैठकों और बयानों से साफ है कि मांझी की मौजूदगी से NDA को जातीय समीकरण में मजबूती मिलती है। पर BJP के बार-बार मनाने पर भी वे अपनी मांग पर अड़े हैं, बीजेपी प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान ने इसे उनकी ‘साफगोई’ कहा है। जातीय गणित की नजर से देखें तो मांझी NDA को कई सीटों पर मजबूती देते दिखते हैं-
- महादलित-दलित वोट बैंक: बिहार में दलित (16%) और महादलित (मुसहर, डोम आदि) वोटरों पर मांझी की पकड़ मजबूत है। 2020 में HAM ने 7 सीटों पर 60% से ज्यादा स्ट्राइक रेट दिखाया, जो NDA की कुल 125 सीटों में योगदान देता है। चिराग पासवान (LJP) के साथ मिलकर वे पश्चिम चंपारण से गया तक दलित वोटों को एकजुट करते हैं।
- नीतीश के पूरक: NDA का महादलित फोकस मांझी से मजबूत होता है। लोकसभा 2024 में NDA की 30/40 सीटों में मांझी का रोल सराहा गया।
- केंद्रीय मंत्री के रूप में: MSME मंत्री के तौर पर वे केंद्र की रोजगार सृजन योजनाओं (जैसे PMEGP) को बिहार में लागू कर NDA की छवि चमकाते हैं।
NDA में मांझी की मजबूती – |
उदाहरण |
जातीय समीकरण |
महादलित (12%) वोटों पर पकड़; 2020 में 4/7 सीटें जीतीं। |
रणनीतिक भूमिका |
JDU-BJP के बीच दलित ब्रिज; चिराग के साथ मिलकर विपक्ष (RJD) को चुनौती। |
परिवारिक प्रभाव |
बेटा–बहू के मंत्री/विधायक होने से स्थानीय स्तर पर मजबूती। |
विवादास्पद अपील |
गरीबी से सत्ता की कहानी दलित युवाओं को प्रेरित करती है। |

जीतनराम मांझी के साथ बैठक करने पहुंचे बीजेपी के चुनाव प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान, तावड़े, सम्राट चौधरी।
NDA के लिए ‘मजबूरी’: बढ़ती मांगें और बगावती तेवर
दूसरी तरफ, मांझी की महत्वाकांक्षा NDA के लिए सिरदर्द बनी हुई है:
- सीटों की मांग: बिहार विधानसभा चुनाव में 15-20 (कभी 25-40) सीटें मांग रहे हैं, ताकि HAM को ECI मान्यता (6% वोट/6 सीटें) मिले। लेकिन BJP-JDU उन्हें 3-7 सीटें देने को तैयार हैं। धर्मेंद्र प्रधान की 5 अक्टूबर 2025 की मीटिंग में मांझी को ‘3 से ज्यादा पर नहीं’ कहा गया। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, मांझी ने धमकी दी- “अगर 15-20 न मिलीं तो 100 सीटों पर अकेले लड़ेंगे।”
- नाराजगी का इतिहास: 2015 में BJP ने नीतीश के सामने मांझी को ‘अपमानित’ होने दिया। अब अप्रत्यक्ष अपमान (वोटर लिस्ट न देना) से नाराज हैं। News18 में मांझी ने कहा, “हम रजिस्टर्ड हैं, लेकिन मान्यता नहीं—यह अपमान है।”
- गठबंधन तनाव: NDA का फॉर्मूला लगभग तय है, मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक- JDU को 102-108, BJP को 101से 107, LJP को 20से 22, HAM को 3से 7, RLM को 3से 5 सीटें देने का फॉर्मूला है। मांझी की मांग से JDU-BJP के बीच ‘100 सीटों की लड़ाई’ तेज हुई है। उपेंद्र कुशवाहा (RLM) ने भी 15 सीटों की मांग कर दी है जिससे NDA पर 35 सीटों को लेकर दवाब बढ़ गया है।
- बगावत का जोखिम: अगर मांझी बगावत करें, तो दलित वोट बंट सकते हैं, जो महागठबंधन (RJD) को फायदा देगा। लेकिन NDA उन्हें ‘जरूरी बुराई’ मानता है—इग्नोर करने से वोट लॉस, मानने से सीट शेयरिंग बिगड़ेगी।
NDA के लिए मांझी की मजबूरी के पहलू |
उदाहरण |
सीट मांग का दबाव |
20 मांगीं, 3-7 ऑफर; बगावत की धमकी। |
पुराना अपमान |
2015 में BJP-JDU ने ‘छोड़ दिया‘; अब मान्यता की लड़ाई। |
गठबंधन असंतुलन |
JDU-BJP 200+ सीटें चाहते; छोटे दलों को ‘कुर्बानी‘ देनी पड़ रही। |
विवादास्पद छवि |
बयान गठबंधन को नुकसान पहुंचाते, लेकिन वोटरों को जोड़ते। |

केंद्रीय मंत्री जीतनराम मांझी
मजबूती ज्यादा, लेकिन मजबूरी नजरअंदाज नहीं
मांझी NDA के लिए ‘मजबूती‘ ज्यादा हैं—उनके बिना दलित वोटों का 20-25% हिस्सा खिसक सकता है। लेकिन सीट बंटवारे की उनकी जिद गठबंधन को ‘मजबूरी‘ में डाल रही है, जहां BJP-JDU को छोटे दलों को मनाना पड़ रहा। 5 अक्टूबर की प्रधान–मांझी बैठक में सहमति बनी, लेकिन अंतिम फॉर्मूला जून–जुलाई में तय होगा। अगर NDA 225+ सीटें जीतना चाहता है (जैसा मांझी दावा करते हैं), तो मांझी को ‘सम्मानजनक‘ रखना जरूरी। वरना, बिहार का जातीय समीकरण फिर उलट सकता है। राजनीतिक पंडितों का मानना है: मांझी ‘करो या मरो‘ के दौर में हैं, और NDA के लिए वे ‘जरूरी सहयोगी‘ से ‘संभावित खतरा‘ बन सकते हैं।
मांझी की राजनीतिक यात्रा: बंधुआ मजदूरी से सत्ता तक
जीतन राम मांझी बीते छह अक्तूबर को 81 बरस के हो गए। वे मुसहर समुदाय (महादलित) से आते हैं, जो बिहार के सबसे वंचित वर्गों में शुमार है। बचपन में बंधुआ मजदूरी करने वाले मांझी ने शिक्षा के बल पर 1966 में हिस्ट्री में ग्रेजुएशन किया और पोस्टल विभाग में नौकरी पाई।

जीतन राम माझी
1980 में कांग्रेस से राजनीति में कदम रखा, फिर RJD (लालू प्रसाद) और 2005 में JDU (नीतीश कुमार) से जुड़े। 2014 में लोकसभा चुनाव में JDU की करारी हार के बाद नीतीश ने इस्तीफा दिया और मांझी को मुख्यमंत्री बनाया—मकसद महादलित वोटों को साधना। लेकिन 9 महीने बाद (फरवरी 2015) विवादास्पद बयानों (जैसे डॉक्टरों के हाथ काटने की धमकी, चूहे खाने को जायज ठहराना) और नीतीश पर हमलों से JDU ने उन्हें बर्खास्त कर दिया। इसके बाद 18 विधायकों के साथ HAM बनाई।
2020 में NDA में वापसी हुई, जहां HAM को 7 सीटें मिलीं और 4 जीतीं। लोकसभा 2024 में गयासुर लोकसभा सीट जीतकर मांझी केंद्रीय मंत्री बने। उनके बेटे संतोष कुमार मांझी बिहार सरकार में मंत्री हैं, जबकि बहू दीपा मांझी इमामगंज से विधायक। यह पारिवारिक राजनीति NDA के लिए फायदेमंद रही, लेकिन मांझी के बयान (जैसे ताड़ी को ‘नेचुरल जूस’ कहना) अक्सर विवादों का सबब बने।
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तमिलनाडु : करूर भगदड़ में 41 मौतों के बाद विजय पर FIR क्यों नहीं?

- मद्रास हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को SIT की जांच IG से कराने का आदेश दिया।
- TVK के नेताओं को भगदड़ के बाद मदद की जगह भाग जाने के लिए लताड़ा।
- 27 सितंबर तमिल सिनेमा के सुपरस्टार विजय ने अपनी पार्टी TVK की रैली बुलाई थी।
द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, मद्रास हाई कोर्ट में एक याचिकाकर्ता ने शिकायत की कि विजय का नाम FIR में न होना राजनीतिक कारणों से है। याचिकाकर्ता का कहना है कि “तमिलनाडु सरकार (DMK) विजय को शील्ड कर रही है, क्योंकि उनकी बढ़ती लोकप्रियता राजनीतिक संतुलन को प्रभावित कर सकती है।” याचिकाकर्ता का कहना है कि DMK विजय पर कार्रवाई से बच रही है, ताकि उनकी पार्टी को 2026 में गठबंधन का विकल्प खुला रखा जा सके।
सरकार का पक्ष : पहले जांच रिपोर्ट आने दो
मुख्यमंत्री एमके स्टालिन की डीएमके सरकार ने भगदड़ के लिए TVK पर लापरवाही का आरोप लगाया और वीडियो सबूत पेश किए। पर करुर पुलिस का कहना है कि सबूतों के अभाव में विजय की व्यक्तिगत जिम्मेदारी साबित नहीं हुई। हालांकि TVK नेताओं के खिलाफ उन्होंने कार्रवाई की है।
साथ ही, सरकार का कहना है कि उन्होंने भगदड़ के कारणों को समझने के लिए जांच दल बना दिया है, इसकी रिपोर्ट आने के बाद ही कार्रवाई होगी।
तमिलनाडु की राजनीति में विजय की भूमिका
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2 Oct: गांधी जयंती और RSS के 100 साल, हत्या की 5 कोशिशों की पड़ताल

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गांधी जयंती के दिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का शताब्दी वर्ष पूरा करने के संयोग पर ऐतिहासिक घटनाओं का विश्लेषण
नई दिल्ली |
यह रोचक संयोग है कि आज गांधी जयंती का दिन है, जब हम महात्मा गांधी के योगदान को याद करते हैं, और उसी दिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) अपनी स्थापना के 100 वर्ष (1925-2025) मना रहा है। गांधी जी ने एक बार कहा था कि कोई उन्हें कितना भी मारने की कोशिश कर ले, वे 125 साल जीने की आशा रखते हैं। हालांकि, उनकी हत्या 30 जनवरी 1948 को 78 साल की उम्र में हो गई।

महात्मा गांधी की हत्या में संलिप्तता के आरोपियों के ट्रायल के दौरान अदालत का दृश्य । सामने की पंक्ति (बाए से दाएं): नाथूराम विनायक गोडसे, नारायण दत्तात्रेय आप्टे और विष्णु रामकृष्ण करकरे। पीछे बैठे (बाएं से दाएं): दिगंबर रामचंद्र बॅज, शंकर , विनायक दामोदर सावरकर, गोपाल विनायक गोडसे और दत्तात्रेय सदाशिव परचुरे। (तस्वीर क्रेडिट – Flickr)
गांधी की हत्या के बाद RSS पर गंभीर आरोप लगे, जिसके चलते भारत सरकार ने 4 फरवरी 1948 को इसे प्रतिबंधित कर दिया, क्योंकि हत्यारे नाथूराम गोडसे का RSS से संदेहास्पद जुड़ाव था—हालांकि यह बाद में साबित नहीं हुआ। 11 जुलाई 1949 को RSS ने हिंसा से परहेज और संविधान के प्रति वफादारी का वचन देकर प्रतिबंध हटवाया।
शताब्दी वर्ष पर पीएम मोदी ने किया प्रतिबंध का जिक्र, कांग्रेस का पलटवार
RSS की 100वीं वर्षगांठ पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समारोह में कहा कि “संघ की सौ वर्ष की यात्रा के दौरान झूठे मामले और प्रतिबंध लगने के बावजूद कभी कटुता नहीं दिखाई”।

1939 में महाराष्ट्र में राष्ट्रीय स्वयं संघ की बैठक के दौरान की तस्वीर (क्रेडिट – इंटरनेट)
इस पर कांग्रेस के महासचिव जयराम रमेश ने प्रतिक्रिया देते हुए दावा किया कि गांधी ने RSS को “सांप्रदायिक निकाय” कहा था, और कुछ इतिहासकारों ने इसे “अधिनायकवादी दृष्टिकोण” से जोड़ा।
इन राजनीतिक बयानों के बीच, गांधी की हत्या से पहले की घटनाओं पर नजर डालना जरूरी है, ताकि उस दौर में RSS और अन्य हिंदूवादी समूहों की भूमिका को संदेह के साथ समझा जा सके।
महात्मा गांधी की हत्या की पांच नाकाम कोशिशें
महात्मा गांधी की हत्या से पहले उनकी हत्या की पांच नाकाम साजिशें रची गईं। इनकी जानकारी गांधी शांति प्रतिष्ठान की पत्रिका ‘गांधी मार्ग’ (मई-जून 2019) के विशेषांक से ली गई है, जो गांधी जयंती के 150वें वर्ष पर प्रकाशित हुआ था।

सावरमती आश्रम में बच्चे को दुलारते बापू (तस्वीर – Flickr)
- 1934: पुणे में बम हमला
साल 1934 में पुणे, जो तब हिंदुत्व का गढ़ माना जाता था, में गांधी के सम्मान समारोह के दौरान उनकी गाड़ी पर बम फेंका गया। गांधी उस गाड़ी में नहीं थे, बल्कि पीछे वाली गाड़ी में थे, जिससे वे बच गए। कई लोग जिसमें नगर पालिका अधिकारी और पुलिस जवान भी घायल हुए। यह मामला दबा दिया गया, और दोषियों की पहचान स्पष्ट नहीं हुई। - 1944: पंचगनी में छुरे से हमला
1944 में गांधी की लंबी कैद और कस्तूरबा/महादेव देसाई की मृत्यु के बाद, वे पंचगनी में आराम कर रहे थे। गांधी मार्ग के अनुसार, 22 जुलाई को नाथूराम गोडसे ने छुरे से हमला किया, लेकिन स्वतंत्रता सेनानी भिलारे गुरुजी ने उन्हें रोक लिया। गांधी ने युवक को माफ कर दिया।

महात्मा गांधी की हत्या में संलिप्तता के आरोपियों का ट्रायल दिल्ली के लाल किले में विशेष अदालत में आयोजित हुआ । ट्रायल 27 मई 1948 से शुरू हुआ। (तस्वीर – flickr)
- 1944: वर्धा में छुरा बरामद
उसी साल, वर्धा आश्रम में गांधी जिन्ना से मिलने की योजना बना रहे थे, जिसका सावरकर समर्थकों ने विरोध किया। पुलिस ने एक उपद्रवी टोली को गिरफ्तार किया, और एक सदस्य के पास छुरा मिला। गांधी मार्ग का दावा है कि यह RSS के नेता गोलवलकर से जुड़ा था, लेकिन इसकी पुष्टि अन्य स्रोतों से आवश्यक है। - 1946: मुंबई-पुणे रेल पलटने की कोशिश
30 जून 1946 को कर्जत के पास गांधी की ट्रेन की पटरियों पर पत्थर रखे गए, लेकिन ड्राइवर ने इमरजेंसी ब्रेक लगाकर गाड़ी रोकी। गांधी ने प्रार्थना सभा में मजाकिया लहजे में कहा, “मैं सात बार ऐसे प्रयासों से बच गया हूँ और 125 साल जीने की आशा रखता हूँ।” तब ‘हिंदू राष्ट्र’ के संपादक नाथूराम गोडसे ने जवाब में लिखा, “आपको इतने साल कौन जीने देगा?” - 1948: बिरला भवन में बम हमला
20 जनवरी 1948 को दिल्ली के बिरला भवन में गांधी की प्रार्थना सभा के दौरान मदनलाल पाहवा ने बम फेंका, लेकिन दूरी का गलत अंदाजा होने से गांधी बच गए। पाहवा, एक शरणार्थी, पकड़ा गया, लेकिन षड्यंत्र के बड़े नाम बचे रहे।

गांधी जी के पार्थिव शरीर के पास शोक में बैठे लोग। (तस्वीर wikimedia.org)
30 जनवरी 1948: सफल हत्या
दस दिन बाद, 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने बिरला भवन में गांधी पर तीन गोलियाँ चलाईं, और ‘हे राम’ कहते हुए गांधी का निधन हो गया।
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स्रोत
गांधी जी के इन क्षणों की जानकारी गांधी शांति प्रतिष्ठान की ‘गांधी मार्ग‘ (मई–जून 2019) से ली गई है।
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